Kabir Das Ke Dohe
Kabir Das Ke Dohe: श्रद्धेय संत-कवि कबीर दास के गहन छंदों को उजागर करने वाले “कबीर दास दोहे” के साथ एक काव्य यात्रा शुरू करें। इन कालजयी दोहों में गहरा आध्यात्मिक ज्ञान समाहित है, जो गहन अंतर्दृष्टि प्रदान करता है जो पीढ़ियों तक गूंजता रहता है। कबीर के ज्ञान की समृद्ध श्रृंखला और उनकी काव्य अभिव्यक्तियों में निहित सार्वभौमिक सत्य को उजागर करने में हमारे साथ जुड़ें।
Kabir das ji ke Dohe
विषय त्याग बैराग है समता
कहिये ज्ञान सुखदाई सब
जीव सों यही भक्ति परमान.!
कबीरा ते नर अँध है गुरु को
कहते और हरि रूठे गुरु ठौर
है गुरु रूठे नहीं ठौर..!
रात गंवाई सोय के, दिवस
गंवाया खाय हीरा जन्म
अनमोल था, कोड़ी बदले जाय..!
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न
मिलिया कोय, जो दिल खोजा
आपना, मुझसे बुरा न कोय..!
ये दुनिया है एक तमाशा कर
नहीं बन्दे किसी की आशा
कहे कबीर सुनो भाई साधो
साँई भजे सुख होय.!
जिन खोजा तिन पाइया,
गहरे पानी पैठ, मैं बपुरा
बूडन डरा, रहा किनारे बैठ..!
जब गुण को गाहक मिले, तब
गुण लाख बिकाई. जब गुण को
गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई..!
आठ पहर चौंसठ घड़ी, लगी
रही अनुराग हिरदै पलक न
बीसरे, तब साँचा बैराग..!
वैध मुआ रोगी मुआ मुआ
सकल संसार एक कबीरा ना
मुआ जेहि के राम अधार.!
जाति न पूछो साधु की, पूछ
लीजिये ज्ञान, मोल करो
तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान..!
यह मन ताको दीजिये साँचा
सेवक होय सिर ऊपर आरा
सहै तऊ न दूजा होय..!
पानी केरा बुदबुदा अस मानुस
की जात. एक दिना छिप
जाएगा ज्यों तारा परभात..!
यह माया है चूहड़ी और चूहड़ा
कीजो बाप-पूत उरभाय के
संग ना काहो केहो.!
चिंता ऐसी डाकिनी, काट
कलेजा खाए वैद बिचारा क्या
करे, कहां तक दवा लगाए..!
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न
बारम्बार तरुवर ज्यों पत्ता
झड़े बहुरि न लागे डार..!
झूठे सुख को सुख कहे मानत
है मन मोद खलक चबैना काल
का कुछ मुंह में कुछ गोद..!
हरि रस पीया जानिये कबहू
न जाए खुमार मैमता घूमत
फिरे नाही तन की सार..!
दुःख में सुमिरन सब करे,
सुख में करे न कोय जो सुख
में सुमिरन करे, तो दुःख काहे
को होय..!
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे
सबकी खैर ना काहू से
दोस्ती न काहू से बैर..!
सुख में सौ मिलें दुःख में मिलें
ना एक साथ कष्ट में जो रहे
साथी वही है नेक.!
यह तन विष की बेलरी गुरु अमृत
की खान शीश कटे जो गुरु
मिलै तो भी सस्ता जान..!
माया मरी न मन मरा, मर मर
गये शरीर आषा तृष्णा ना
मरी, कह गये दास कबीर..!
देख कबीरा दंग रह गया,
मिला न कोई मीत मंदिर
मस्जिद के चक्कर में खत्म
हो गई प्रीत..!
जहाँ न जाको गुन लहै तहाँ न
ताको ठाँव धोबी बसके क्या
करे दीगम्बर के गाँव..!
कबीरा तेरी झोपडी गल कटीयन
के पास जैसी करनी वैसे
भरनी तू क्यों भया उदास..!
मल-मल धोएं शरीर को धोएं
ना मन का मैल नहाएं गंगा
गोमती रहें बैल के बैल..!
दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी
हाय मरी खाल की सांस से, लोह
भसम हो जाय..!
साईं इतना दीजिये जा मे
कुटुम समाय मैं भी भूखा न
रहूँ साधु ना भूखा जाय..!
कहत सुनत सब दिन गए उरझि
न सुरझ्या मन. कही कबीर चेत्या
नहीं अजहूँ सो पहला दिन..!
संघर्ष को यह स्मरण है,
अवनति, उन्नति का ही
एक चरण है..!
प्रेम बिना धीरज नहीं विरह
बिना बैराग सतगुरु बिन
जावै नहीं मन मनसा का दाग़..!
अति का भला न बोलना, अति
की भली न चूप, अति का भला
न बरसना, अति की भली न धूप..!
कबीर सो धन संचे जो आगे
को होय सीस चढ़ाए पोटली
ले जात न देख्यो कोय..!
जहां दया तहां धर्म है जहां लोभ वहां
पाप जहां क्रोध तहां काल है जहां
क्षमा वहां आप..!
बुरा जो देखन में चला बुरा न
मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना
मुझसे बुरा न कोय।
कबीर तन पंछी भया जहां मन
तहां उडी जाइ. जो जैसी संगती
कर सो तैसा ही फल पाइ..!
दोस पराए देखि करि,
चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई,
जिनका आदि न अंत..!
जबही नाम हिरदे घरा भया
पाप का नाश मानो चिंगरी
आग की परी पुरानी घास..!
कबीर दास के 10 दोहे
जिन खोजा तिन पाइया,
गहरे पानी पैठ, मैं बपुरा
बूडन डरा, रहा किनारे बैठ..!
प्रीत ना कीजे पंछी जैसी,
जल सूखे उड़ जाय प्रीत तो
कीजे मछली जैसी जल सूखे
मर जाय..!
वस्तु है ग्राहक नहीं वस्तु
सागर अनमोल बिना करम
का मानव फिरें डांवाडोल.!
येही कारन तु जग में आया
वो नहीं तुने कर्म कमाया मन
मैला था मैला तेरा काया मल
मल धोय..!
ऐसा कोई ना मिले हमको दे
उपदेस भौ सागर में डूबता,
कर गहि कादै केस..!
कबीरा गर्व ना कीजिये ऊंचा
देख आवास काल पड़ी भू
लेटना ऊपर जमसी घास..!
जैसा भोजन खाइये तैसा ही
मन होय जैसा पानी पीजिये,
तैसी वाणी होय..!
माटी कहे कुमार से तू क्या
रोदे मोहे एक दिन ऐसा
आएगा, मैं गेंदुंगी तोहे..!
कबीर लहरि समंद की, मोती
बिखरे आई. बगुला भेद न
जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई..!
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा,
तुर्क कहें रहमाना आपस में
दोउ लड़ी-लड़ी मुए मरम न
कोउ जाना..!
वक्ता ज्ञानी जगत में पंडित
कवि अनंत सत्य पदारथ
पारखी बिरले कोई संत.!
जग में बैरी कोई नहीं जो मन
शीतल होय यह आपा तो
डाल दे दया करे सब कोए..!
कबीर दास के 10 दोहे अर्थ सहित
कबीर माला मनहि की,
और संसारी भीख ।
माला फेरे हरि मिले,
गले रहट के देख।
मल मल धोए शरीर को,
धोए न मन का मैल
नहाए गंगा गोमती,
रहे बैल के बैल।।
निंदक नियरे राखिये आँगन
कुटी छवाय बिन पानी साबुन
बिना निर्मल करे सुभाय..!
ऐसी वाणी बोलिए, मन का
आपा खोये।
औरन को शीतल करे, आपहुं
शीतल होए।।
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान
कबीर ~
कबीरा खड़ा बाज़ार
में मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती ना
काहू से बैर।।
कबीरा चिंता क्या करे,
चिंता से क्या होय।
मेरी चिंता हरी करे,
चिंता मोहे ना कोय।।
गए थे एक फल, संत मिले फल
चार ।
सतगुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर
विचार ||
साधु भूखा भाव का धन का भूखा
नाहीं ।
धन का भूखा जो फिरै सो तो
साधु नाहीं ॥
2 Line Sant Kabir Ke Dhohe
प्रीत करो तो ऐसी करो जैसी करे कपास ।
जीते जी या तन ढके मरे न छोड़े साथ ॥
करता था तो क्यूं रहा, अब करी क्यूं पछताए।
बोए पेड़ बबूल का, तो आम कहां से पाए।।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप.
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप.
” धीरे धीरे रे मना, धीरे सब होये,
माली सींचे सो घड़ा, ऋतू आये फल होये”
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिर पछताओगे, प्राण जाहि जब छूट ॥
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत
ऊँचे पानी ना टिके… नीचे ही ठहराय।
नीचा हो सो भारी पी… ऊँचा प्यासा जाय।।
4 Line Sant Kabir Das Ji Ke Dohe in Hindi
कबीरा मन निर्मल भया,
जैसे गंगा नीर।
पाछे-पाछे हरी फिरे,
कहत कबीर कबीर।
बुरा जो देखन मैं चला,
बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना,
मुझसे बुरा न कोय ।
कागा काको धन हरे,
कोयल काको देय।
मीठे शब्द सुनाय के,
जग अपनो कर लेय।।
यह तन विष की बेलरी,
गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले,
तो भी सस्ता जान।।
संत ना छाडै संतई,
जो कोटिक मिले असंत।
चंदन भुवंगा बैठिया,
तऊ सीतलता न तजंत।।
प्रीत न कीजिए पंछी जैसी,
जल सुखे उड़ जाए।
प्रीत तो कीजिए मछली जैसी,
जल सुखे मर जाए |
बुरा जो देखन मैं चला,
बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना,
मुझसे बुरा न कोय ।
दुख में सुमरिन सब करे,
सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमरिन करे,
दुख काहे को होय ॥
कबीर दास जी के दोहे हिंदी में
तन को जोगी सब करें,
मन को बिरला कोई.
सब सिद्धि सहजे पाइए,
जे मन जोगी होड.
कस्तूरी कन्डल बसे मृग दूढै
बन माहि त्ऐसे घट-घट राम
है दुनिया देखे नहि.. !
झूठे सुख को सुख कहे,
मानत है मन मोद.
खलक चबैना काल का,
: कुछ मुंह में कुछ गोद.
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ,
पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का,
पढ़े सो पंडित होय।
जैसा भोजन खाइये तैसा
ही मन होय जैसा पानी
पीजिये तैसी वाणी होय. .
जो आया सो चला गया,
धरती छोड़ शरीर ।
जो देहि के संग गया,
ताका नाम कबीर।
कबीरा तेरे जगत में,
उल्टी देखी रीत ।
पापी मिलकर राज करें,
साधु मांगे भीख ।।
बुरा जो देखन मैं चला,
बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना,
मुझसे बुरा न कोय ।
संत बड़े परमार्थी,
जाको शीतल अंग।
तपन बुझावै और की,
दे दै अपन रंग।
जहाँ दया तहा धर्म है,
जहाँ लोभ वहां पाप ।
जहाँ क्रोध तहा काल है,
जहाँ क्षमा वहां आप |
कबीर, यो मन मलिन है,
धोए ना छूटे रंग।
कै छुटे प्रभु नाम से,
कै छुटे सत्संग। ।